जर्मनी ने हिज़्बुल्लाह पर क्यों लगाए प्रतिबंध?
क्या होगा बरलिन-तेहरान रिश्तों का भविष्य? क्या यह अमरीका और इस्राईल की कामयाबी है?
हिजबुल्लाह वही संघटन है जिसने दर्जनों आतंकवादी संगठनो का सफाया किया था
Sajjad Ali Nayane
08 May 2020
इस समय यह सवाल बहुत अहम है कि हिज़्बुल्लाह आंदोलन पर प्रतिबंध लगाकर क्या जर्मनी ने ईरान से अपने संबंधों को ख़तरे में डाल दिया है।
ज़मीनी सच्चाई यह है कि ईरान और जर्मनी दोनों देशों की डिपलोमेसी की जड़ें काफ़ी गहरी हैं और दोनों ही संस्थाएं संकटों से निपटने में दक्ष हैं।
यदि एक नज़र इस बात पर डाल ली जाए कि हालिया समय में जर्मनी और अमरीका के बीच क्या हालात रहे और बरलिन और तेहरान के बीच रिश्तों की क्या हालत रही तो तसवीर की गहराई को समझना आसान होगा हालिया कोरोना संकट के समय में जर्मनी ने कभी अकेले और कभी यूरोपीय संघ के दायरे में अमरीकी प्रतिबंधों को चुनौती दी क्योंकि व्यापारिक लेनदेन के लिए इंसटैक्स व्यवस्था सक्रिय की जिससे चिकित्सा उपकरण और सहायताएं ईरान भेजना आसान हो गया। इस पर अमरीका में रिपब्लिकन पार्टी से नज़दीकी रखने वाले संचार माध्यमों ने भारी आक्रोश जताया और जर्मनी को कोसा
इस बात पर ज़ोर दिया गया कि जर्मनी भी अमरीकी प्रतिबंधों पर अमल करे और बरलिन में मौजूद ईरानी बैंकों के ख़िलाफ़ कार्यवाही करे। कोरोना वायरस के दौरान वाशिंग्टन से बरलिन के संबंधों में और भी खटास आ गई। कभी तो जर्मनी ने अन्य यूरोपीय देशों के साथ मिलकर अमरीका को चिकित्सा उपकरण एक्सपोर्ट करने से इंकार किया और कभी यह हुआ कि कोरोना वायरस का वैक्सीन तैयार करने वाली जर्मन कंपनी को ट्रम्प द्वारा अपने क़ब्ज़े में करने का मुद्दा गर्मा गया। कोरोना से पहले भी वाशिंग्टन और बर्लिन के संबंध दोस्ताना नहीं थे। जब से ट्रम्प अमरीका की सत्ता में पहुंचे हैं वाशिंग्टन ने जर्मनी के सामने संबंधों को पहले की स्थिति में वापस ले जाने के लिए कम से कम चार बड़ी मांगें रखीं।
पहली मांग यह थी कि 5जी इंटरनेट के मामले में चीन के साथ बल्कि विशेष रूप से हुवावी कंपनी के साथ जर्मनी अपना सहयोग बंद करे। इस मुद्दे पर वाशिंग्टन और बरलिन के बीच बड़ी तनातनी रही और आख़िर तक बरलिन ने वाशिंग्टन की बात नहीं मानी।
दूसरी मांग थी कि जर्मनी नोर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन से रूस की गैस का इमपोर्ट बंद करे। जर्मनी ने यह मांग भी ठुकरा दी। तीसरी मांग यह थी कि जर्मनी नैटो में अपनी फ़ंडिंग बढ़ाए मगर जर्मनी ने हमेशा हथियारों के बजाए विकास और सेवाओं पर अधिक बजट ख़र्च करने पर ज़ोर दिया। कोरोना वायरस की महामारी के दौरान यह साबित भी हो गया कि जर्मनी का फ़ैसला बिलकुल दुरुस्त था और अमरीका ग़लत दिशा में जा रहा था। चौथी मांग यह थी कि जर्मनी हिज़्बुल्लाह पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाए मगर जर्मनी कई वजहों से यह मांग भी स्वीकार करने पर तैयार नहीं था। सबसे महत्वपूर्ण वजह यह थी कि हिज़्बुल्लाह एक शक्तिशाली लेबनानी धड़ा है उसे नज़रअंदाज़ करके अन्य धड़ों से सहयोग जारी रख पाना संभव नहीं होगा। दूसरी बात यह थी कि जर्मनी ने कई बार हिज़्बुल्लाह और इस्राईल के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी।
जर्मनी के भीतर यहूदी लाबी की तरफ़ से बार बार मांग की जी रहा थी कि वह हिज़्बुल्लाह पर प्रतिबंध लगाए जर्मनी के कुछ दक्षिणपंथी राजनैतिक दल भी इस प्रकार की मांगें कर रहे थे। इन हालात में जर्मन सरकार के पास कोई चारा नहीं था उसे कोई एसा क़दम उठाना था कि देश के भीतर से और अमरीका की ओर से पड़ने वाला दबाव कुछ कम हो। जर्मनी ने पिछले दो वर्षों में सऊदी अरब से फंड लेने वाली मस्जिदों और संगठनों के ख़िलाफ़ कार्यवाही की जबकि तुर्की से जुड़ी मस्जिदों और संगठनों के ख़िलाफ़ भी कार्यवाही की मांग की जा रही है। इसी परिप्रेक्ष्य में हिज़्बुल्लाह से जुड़ी मस्जिदों को भी निशाना बनाया गया है। वरना यह बात तो सारी दुनिया जानती है कि हिज़्बुल्लाह को आतंकी संगठन घोषित करना हास्यास्पद क़दम है। इस संगठन ने सीरिया और इराक़ में दाइश सहित दर्जनों आतंकी संगठनों को ध्वस्त किया है जो पूरे इलाक़े ही नहीं यूरोप के लिए भी गंभीर ख़तरा पैदा कर सकते थे और यूरोप को इस ख़तरे के ज़ख्म भी लग चुके हैं।
क्या होगा बरलिन-तेहरान रिश्तों का भविष्य? क्या यह अमरीका और इस्राईल की कामयाबी है?
हिजबुल्लाह वही संघटन है जिसने दर्जनों आतंकवादी संगठनो का सफाया किया था
Sajjad Ali Nayane
08 May 2020
इस समय यह सवाल बहुत अहम है कि हिज़्बुल्लाह आंदोलन पर प्रतिबंध लगाकर क्या जर्मनी ने ईरान से अपने संबंधों को ख़तरे में डाल दिया है।
ज़मीनी सच्चाई यह है कि ईरान और जर्मनी दोनों देशों की डिपलोमेसी की जड़ें काफ़ी गहरी हैं और दोनों ही संस्थाएं संकटों से निपटने में दक्ष हैं।
यदि एक नज़र इस बात पर डाल ली जाए कि हालिया समय में जर्मनी और अमरीका के बीच क्या हालात रहे और बरलिन और तेहरान के बीच रिश्तों की क्या हालत रही तो तसवीर की गहराई को समझना आसान होगा हालिया कोरोना संकट के समय में जर्मनी ने कभी अकेले और कभी यूरोपीय संघ के दायरे में अमरीकी प्रतिबंधों को चुनौती दी क्योंकि व्यापारिक लेनदेन के लिए इंसटैक्स व्यवस्था सक्रिय की जिससे चिकित्सा उपकरण और सहायताएं ईरान भेजना आसान हो गया। इस पर अमरीका में रिपब्लिकन पार्टी से नज़दीकी रखने वाले संचार माध्यमों ने भारी आक्रोश जताया और जर्मनी को कोसा
इस बात पर ज़ोर दिया गया कि जर्मनी भी अमरीकी प्रतिबंधों पर अमल करे और बरलिन में मौजूद ईरानी बैंकों के ख़िलाफ़ कार्यवाही करे। कोरोना वायरस के दौरान वाशिंग्टन से बरलिन के संबंधों में और भी खटास आ गई। कभी तो जर्मनी ने अन्य यूरोपीय देशों के साथ मिलकर अमरीका को चिकित्सा उपकरण एक्सपोर्ट करने से इंकार किया और कभी यह हुआ कि कोरोना वायरस का वैक्सीन तैयार करने वाली जर्मन कंपनी को ट्रम्प द्वारा अपने क़ब्ज़े में करने का मुद्दा गर्मा गया। कोरोना से पहले भी वाशिंग्टन और बर्लिन के संबंध दोस्ताना नहीं थे। जब से ट्रम्प अमरीका की सत्ता में पहुंचे हैं वाशिंग्टन ने जर्मनी के सामने संबंधों को पहले की स्थिति में वापस ले जाने के लिए कम से कम चार बड़ी मांगें रखीं।
पहली मांग यह थी कि 5जी इंटरनेट के मामले में चीन के साथ बल्कि विशेष रूप से हुवावी कंपनी के साथ जर्मनी अपना सहयोग बंद करे। इस मुद्दे पर वाशिंग्टन और बरलिन के बीच बड़ी तनातनी रही और आख़िर तक बरलिन ने वाशिंग्टन की बात नहीं मानी।
दूसरी मांग थी कि जर्मनी नोर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन से रूस की गैस का इमपोर्ट बंद करे। जर्मनी ने यह मांग भी ठुकरा दी। तीसरी मांग यह थी कि जर्मनी नैटो में अपनी फ़ंडिंग बढ़ाए मगर जर्मनी ने हमेशा हथियारों के बजाए विकास और सेवाओं पर अधिक बजट ख़र्च करने पर ज़ोर दिया। कोरोना वायरस की महामारी के दौरान यह साबित भी हो गया कि जर्मनी का फ़ैसला बिलकुल दुरुस्त था और अमरीका ग़लत दिशा में जा रहा था। चौथी मांग यह थी कि जर्मनी हिज़्बुल्लाह पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाए मगर जर्मनी कई वजहों से यह मांग भी स्वीकार करने पर तैयार नहीं था। सबसे महत्वपूर्ण वजह यह थी कि हिज़्बुल्लाह एक शक्तिशाली लेबनानी धड़ा है उसे नज़रअंदाज़ करके अन्य धड़ों से सहयोग जारी रख पाना संभव नहीं होगा। दूसरी बात यह थी कि जर्मनी ने कई बार हिज़्बुल्लाह और इस्राईल के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी।
जर्मनी के भीतर यहूदी लाबी की तरफ़ से बार बार मांग की जी रहा थी कि वह हिज़्बुल्लाह पर प्रतिबंध लगाए जर्मनी के कुछ दक्षिणपंथी राजनैतिक दल भी इस प्रकार की मांगें कर रहे थे। इन हालात में जर्मन सरकार के पास कोई चारा नहीं था उसे कोई एसा क़दम उठाना था कि देश के भीतर से और अमरीका की ओर से पड़ने वाला दबाव कुछ कम हो। जर्मनी ने पिछले दो वर्षों में सऊदी अरब से फंड लेने वाली मस्जिदों और संगठनों के ख़िलाफ़ कार्यवाही की जबकि तुर्की से जुड़ी मस्जिदों और संगठनों के ख़िलाफ़ भी कार्यवाही की मांग की जा रही है। इसी परिप्रेक्ष्य में हिज़्बुल्लाह से जुड़ी मस्जिदों को भी निशाना बनाया गया है। वरना यह बात तो सारी दुनिया जानती है कि हिज़्बुल्लाह को आतंकी संगठन घोषित करना हास्यास्पद क़दम है। इस संगठन ने सीरिया और इराक़ में दाइश सहित दर्जनों आतंकी संगठनों को ध्वस्त किया है जो पूरे इलाक़े ही नहीं यूरोप के लिए भी गंभीर ख़तरा पैदा कर सकते थे और यूरोप को इस ख़तरे के ज़ख्म भी लग चुके हैं।