बाल साहित्य: दशा, दिशा और संभावना.......डॉ. अर्पण जैन 'अविचल'।
अली असगर बोहरा
इंदौर,07 May 2020
बाल मन का दर्शन, समझ और चित्रण इन सब के तारतम्य से स्थापित विधा का नाम ही बाल साहित्य है। और प्रत्येक बच्चे का साहित्य से संबंध उसी समय से शुरू हो जाता है जब वो लोरी सुनता है। माँ की लोरी ही बच्चे की पहली कविता होती है जो उसका परिचय साहित्य से करवाती है। रोचकता और तथ्यात्मकता के साथ प्रेरक अभिव्यक्ति, जो उस बाल मन को प्रभावित करने और उसके भविष्य के लिए नींव बनाने का कार्य करे, वही सच्चा बाल साहित्य है।
नई कोपल, नए पत्ते, नई हवाएँ, नए फूल, नए खिलौने, नए शहर और नए लोग सदा ही आकर्षण का परिचायक रहे हैं। आकर्षण का सार्वभौमिक सिद्धांत इसी बात की तरफ़ इशारा करता है कि हर नई चीज़ जो पहले देखी, सुनी या अनुभव नहीं की है वो मन को पहले आकर्षित ही करती है। यही आकर्षण का नियम बाल मन पर भी उसी स्वरूप में लागू होता है जो अन्य नवाचारों के लिए होता है। इसीलिए नवाचार पूर्ण लेखन जो बाल मन पर लम्बे समय तक प्रभाव बना पाए और प्रभावित करने के साथ-साथ स्थायी स्मृति का सूत्रधार बने यही आवश्यकता है बाल साहित्य की।
वर्तमान समय में बच्चों के बस्ते से स्कूली किताबों के बीच से साहित्य और नैतिक शिक्षा की किताबें गुम-सी रही हैं। न तो विद्यालयों को चिंता है इस बात की, न ही माता-पिता को। इस समस्या पर विद्यालयों में अधिकतर शिक्षक यह तर्क देते हैं कि बच्चा छोटा है। अपनी कक्षा की किताब ही पढ़ ले, वही बहुत है। बाल साहित्य और पाठ्य पुस्तक के महत्त्व और भिन्नता से पहले हम यह भी चर्चा कर लें कि जिस बच्चे को हम छोटा समझ रहे हैं, वह अपनी आयु के स्तर से औसतन कितना आंकलन स्वयं कर लेता है। जबकि उस साहित्य से बच्चे का सर्वांगणीय विकास प्रभावित होता है। बच्चा जितना पढ़ेगा, सीखेगा उतना वह निखरेगा।
बच्चों में पढ़ने की आदत डालने के लिए कुछ ज़िम्मेदारी माता-पिता व परिवार को उठानी होगी तो कुछ विद्यालयों को भी। जैसे उनमें पढ़ने की आदत डालनी होगी, प्रतिदिन समाचार-पत्र पढ़ने से इसकी शुरुआत की जा सकती है, फिर किताबें पढ़ने के लिए दी जाएँ, पढ़ लेने पर प्रोत्साहन हेतु उन्हें कुछ उपहार भी दिया जा सकता है। इसके माध्यम से बच्चा साहित्य से भी जुड़ा रहेगा और निश्चित तौर पर उसके संस्कार भी बनेंगे।
बाल साहित्यकार और बाल मन की चिंता
वर्तमान में लिखा जा रहा बाल साहित्य भी इस बात में कहीं कमज़ोर हो जाता है, जहाँ कठिन और क्लिष्ट बनाने का चलन साहित्य को उद्देश्यविहीन बना देता है। बच्चों के लिए लिखे जाने प्रत्येक लेखन में लोरी जैसा लालित्य हो, सरलता, सामंजस्यता, स्पष्टता और सरल शब्दों में लेखन हो। इतना सहज हो कि बच्चा उसे पढ़ने में चॉकलेट को खाने और गले से नीचे उतारने में महसूस करने वाले आनंद की अनुभूति कर सके। यदि बच्चों के लिए लिखे जाने वाले साहित्य में क्लिष्ट शब्दों का समावेश होगा तो वह अर्थहीन ही माना जाएगा।
डॉ. अर्पण जैन 'अविचल'
पत्रकार एवं स्तम्भकार
संपर्क: 9893877455
अणुडाक: arpan455@gmail.com
अंतरताना:www.arpanjain.com
लेखक डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं| साथ ही 'भारतीय पत्रकारिता एवं वैश्विक चुनौतियाँ' विषय पर शोध कर वेब पत्रकारिता के क्षेत्र में विगत आधे दशक से ज़्यादा समय से कार्य कर रहे हैं ।
अली असगर बोहरा
इंदौर,07 May 2020
बाल मन का दर्शन, समझ और चित्रण इन सब के तारतम्य से स्थापित विधा का नाम ही बाल साहित्य है। और प्रत्येक बच्चे का साहित्य से संबंध उसी समय से शुरू हो जाता है जब वो लोरी सुनता है। माँ की लोरी ही बच्चे की पहली कविता होती है जो उसका परिचय साहित्य से करवाती है। रोचकता और तथ्यात्मकता के साथ प्रेरक अभिव्यक्ति, जो उस बाल मन को प्रभावित करने और उसके भविष्य के लिए नींव बनाने का कार्य करे, वही सच्चा बाल साहित्य है।
नई कोपल, नए पत्ते, नई हवाएँ, नए फूल, नए खिलौने, नए शहर और नए लोग सदा ही आकर्षण का परिचायक रहे हैं। आकर्षण का सार्वभौमिक सिद्धांत इसी बात की तरफ़ इशारा करता है कि हर नई चीज़ जो पहले देखी, सुनी या अनुभव नहीं की है वो मन को पहले आकर्षित ही करती है। यही आकर्षण का नियम बाल मन पर भी उसी स्वरूप में लागू होता है जो अन्य नवाचारों के लिए होता है। इसीलिए नवाचार पूर्ण लेखन जो बाल मन पर लम्बे समय तक प्रभाव बना पाए और प्रभावित करने के साथ-साथ स्थायी स्मृति का सूत्रधार बने यही आवश्यकता है बाल साहित्य की।
वर्तमान समय में बच्चों के बस्ते से स्कूली किताबों के बीच से साहित्य और नैतिक शिक्षा की किताबें गुम-सी रही हैं। न तो विद्यालयों को चिंता है इस बात की, न ही माता-पिता को। इस समस्या पर विद्यालयों में अधिकतर शिक्षक यह तर्क देते हैं कि बच्चा छोटा है। अपनी कक्षा की किताब ही पढ़ ले, वही बहुत है। बाल साहित्य और पाठ्य पुस्तक के महत्त्व और भिन्नता से पहले हम यह भी चर्चा कर लें कि जिस बच्चे को हम छोटा समझ रहे हैं, वह अपनी आयु के स्तर से औसतन कितना आंकलन स्वयं कर लेता है। जबकि उस साहित्य से बच्चे का सर्वांगणीय विकास प्रभावित होता है। बच्चा जितना पढ़ेगा, सीखेगा उतना वह निखरेगा।
बच्चों में पढ़ने की आदत डालने के लिए कुछ ज़िम्मेदारी माता-पिता व परिवार को उठानी होगी तो कुछ विद्यालयों को भी। जैसे उनमें पढ़ने की आदत डालनी होगी, प्रतिदिन समाचार-पत्र पढ़ने से इसकी शुरुआत की जा सकती है, फिर किताबें पढ़ने के लिए दी जाएँ, पढ़ लेने पर प्रोत्साहन हेतु उन्हें कुछ उपहार भी दिया जा सकता है। इसके माध्यम से बच्चा साहित्य से भी जुड़ा रहेगा और निश्चित तौर पर उसके संस्कार भी बनेंगे।
वर्तमान में लिखा जा रहा बाल साहित्य भी इस बात में कहीं कमज़ोर हो जाता है, जहाँ कठिन और क्लिष्ट बनाने का चलन साहित्य को उद्देश्यविहीन बना देता है। बच्चों के लिए लिखे जाने प्रत्येक लेखन में लोरी जैसा लालित्य हो, सरलता, सामंजस्यता, स्पष्टता और सरल शब्दों में लेखन हो। इतना सहज हो कि बच्चा उसे पढ़ने में चॉकलेट को खाने और गले से नीचे उतारने में महसूस करने वाले आनंद की अनुभूति कर सके। यदि बच्चों के लिए लिखे जाने वाले साहित्य में क्लिष्ट शब्दों का समावेश होगा तो वह अर्थहीन ही माना जाएगा।
डॉ. अर्पण जैन 'अविचल'
पत्रकार एवं स्तम्भकार
संपर्क: 9893877455
अणुडाक: arpan455@gmail.com
अंतरताना:www.arpanjain.com
लेखक डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं| साथ ही 'भारतीय पत्रकारिता एवं वैश्विक चुनौतियाँ' विषय पर शोध कर वेब पत्रकारिता के क्षेत्र में विगत आधे दशक से ज़्यादा समय से कार्य कर रहे हैं ।